गायत्री जयंती: वेदों का सार है गायत्री

गायत्री वह दैवीय शक्ति है जिससे संबंध स्थापित करके मनुष्य अपने जीवन विकास के मार्ग में बड़ी उपलब्धि प्राप्त कर सकता है। परमात्मा की अनेक शक्तियां हैं। उनके कार्य और गुण अलग-अलग हैं। उन शक्तियों में गायत्री अपना बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान रखती है। गायत्री उपासना द्वारा साधकों को बड़े-बड़े लाभ होते हैं। वेदों में वर्णित है कि ब्रह्मा जी ने चारों वेदों की रचना की तो उससे पहले 24 अक्षर वाले गायत्री मंत्र की रचना की। गायत्री के मंत्र में एक-एक अक्षर में सूक्ष्म तत्व समाहित हैं। इसके फलने-फूलने पर चार वेदों की शाखाएं प्रकट हो गईं। जैसे एक वट बीज के गर्भ में महान वटवृक्ष समाया होता है उसी प्रकार गायत्री मंत्र के मूल तत्वों का प्रभाव करोड़ों गुना होता है। गायत्री के 24 अक्षर भी ऐसे ही बीज हैं जो वेदों के महाविस्तार के रूप में प्रकट हुए थे।
गायत्री सूक्ष्म शक्तियों का स्तोत्र है। इस शक्ति के द्वारा अनेक पदार्थों और प्राणियों का निर्माण होना था। इसलिए उसे भी तीन भागों में अपने को बांट देना पड़ा ताकि अनेक प्रकार के सम्मिश्रण तैयार सकें। जब असमान गुण, कर्म एवं स्वभाव वाले जड़-चेतन पदार्थ बन चुके तो इन्हें सत्, रज और तम के नामों से पुकारा गया। सत् का अर्थ है ईश्वर का दिव्य तत्व। रज का अर्थ है निर्जीव पदार्थों का प्रामाणिक स्रोत और तम अर्थ है जड़ पदार्थों औऱ तत्वों  के मिलने से उत्पन्न हुई आनंददायी चेतना। इसी चेतना का नाम है गायत्री। 

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गायत्री के साधक निर्विकार होते हैं। उन्हें किसी प्रकार के मोहमाया का आकर्षण नहीं होता है। मंत्र विद्या में सबसे श्रेष्ठ गायत्री महामंत्र है। गायत्री का उच्चारण कंठ,तालु, मूर्धा, ओष्ठ  आदि मुख के विभिन्न अंगों के द्वारा होता है। इस उच्चारण काल में मुख से जिन भागों से ध्वनि निकलती है। उन अंगों के नाडी तंतु शरीर के विभिन्न भागों तक खुल जाते हैं। गायत्री मंत्र में समाहित अक्षरों एवं विविध शब्दों के उच्चारण से ग्रंथियों पर अपना विशेष प्रभाव पड़ता है। इससे उन ग्रन्थियों का शक्ति का भंड़ार जाग जाता है। गायत्री के वर्णों का गठन भी इसी आधार पर हुआ है। गायत्री मंत्र में 24 अक्षर है। इसका संबंध शरीर में स्थित 24 ग्रंथियां से है जो जागृत होने पर मनुष्य को सद्बुद्धि प्रकाशक शक्तियों को बढ़ाती है। शब्द को ब्रह्मा कहा गया है। ब्रह्मा की संपूर्ण शक्ति का सार ही गायत्री है। पुराणों में गायत्री को कामधेनु गाय के समान माना है। इससे सारी कामनाएं पूर्ण होती हैं। मनुष्य आत्मा के आनंद स्वरूप को जान लेता है।

दुखों के हटते ही वह अपने मूल स्वरूप में पहुंच जाता है और गायत्री कामधेनु गाय के समान मनुष्य के कष्टों का निवारण कर देती है। गायत्री कोई स्वतंत्र देवी-देवता नहीं है। वह तो परम-पिता परमात्मा की एक क्रिया है। जैसे ब्रह्मा निर्विकार है, बुद्धि से परे है। उसी प्रकार गायत्री भी आत्मसाक्षात्कार,ब्रह्मदर्शन और ईश्वर साधना का एक आध्यात्मिक स्तोत्र है।  इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को गायत्री मंत्र का जाप अवश्य करना चाहिए। हिंदू धर्म में गायत्री को सर्वोत्कृष्ट मंत्र माना गया है जो चारों वेदों का सार है। वेदों में कहा गया है। ’गायत्री वा इदं सर्वम्।’ अर्थात यह समस्त जो कुछ भी है सब गायत्री स्वरूप है। गायत्री परमात्मा अर्थात गायत्री ईश्वर का रूप है। गायत्री सद्बुद्धि दायक मंत्र है। वह साधक के मन को, उसके अंतःकरण को, मस्तिष्क और विचारों को  परम कल्याण की ओर ले जाता है। गायत्री का निरंतर जाप और साधना करने से व्यक्ति आध्यात्मिक शक्ति का दृष्टा बन जाता है। अथर्व वेद में 19-71-1 में गायत्री की प्रार्थना की गई है। उसे आयु ,प्राण, शक्ति,कीर्ति,धन और ब्रह्म तेज प्रदान करने वाली बताया गया है। महर्षि विश्वामित्र का कथन है कि गायत्री के समान चारों वेदों में कोई मंत्र नहीं है। संपूर्ण वेद, यज्ञ, दान गायत्री मंत्र की एक कला के भी समान नहीं है। इसलिए समस्त वेदों का सार गायत्री मंत्र है।
(ये जानकारियां धार्मिक आस्थाओं और लौकिक मान्यताओं पर आधारित हैं, जिसे मात्र सामान्य जनरुचि को ध्यान में रखकर प्रस्तुत किया गया है।) 

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